माहो-अख्तर के बिना आसमां हूँ मैं ,
.यादों की बिखरी हुई कहकशां हूँ मैं |
अपने खूं से लिखी हुई दास्ताँ हूँ मैं |
पढने वालों के लिए इम्तहाँ हूँ मैं |
.
चाहे जिसको लूटना ये ज़हाँ सारा ,
उस दौलत -ऐ-हुस्न का पासबाँ हूँ मैं |
.
छिप सकता है दर्द तेरा ,भला कैसे
तुम्हारे हर राज़ का राज़दां हूँ मैं |
.
या एजद! जाऊं कहीं और मैं कैसे ,
जब तेरे दर का संगे- आस्तां हूँ मैं|
.
कोई भी आकर बसे तो ख़ुशी होगी,
बहुत वक्त से एक सूना मकां हूँ मैं |
.
माना लिखता हूँ सुख़न मैं बहुत अच्छा ,
फिर भी ग़ालिब -सा सुख़नवर कहाँ हूँ मैं |
.यादों की बिखरी हुई कहकशां हूँ मैं |
अपने खूं से लिखी हुई दास्ताँ हूँ मैं |
पढने वालों के लिए इम्तहाँ हूँ मैं |
.
चाहे जिसको लूटना ये ज़हाँ सारा ,
उस दौलत -ऐ-हुस्न का पासबाँ हूँ मैं |
.
छिप सकता है दर्द तेरा ,भला कैसे
तुम्हारे हर राज़ का राज़दां हूँ मैं |
.
या एजद! जाऊं कहीं और मैं कैसे ,
जब तेरे दर का संगे- आस्तां हूँ मैं|
.
कोई भी आकर बसे तो ख़ुशी होगी,
बहुत वक्त से एक सूना मकां हूँ मैं |
.
माना लिखता हूँ सुख़न मैं बहुत अच्छा ,
फिर भी ग़ालिब -सा सुख़नवर कहाँ हूँ मैं |
बहुत सुन्दर और सटीक अभिव्यक्ति प्रस्तुत की है आपने!
ReplyDeleteachcha likhe.....
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत एहसास...खाली मकान सा दिल और किसी के बसने की ख़्वाहिश...
ReplyDeleteबेहद उम्दा शेर ...
सुन्दरभाव से लिखी
ReplyDeleteबेहतरीन रचना:-)
सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ उम्दा प्रस्तुती!
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