झूठ के दौर में भी सदाकत को कम ना आंकिये ।
वतन के लिए हुई शहादत को कम ना आंकिये ।।
झुका देती है अक्सर ही वो रियासतों को ,
मजबूर आदमी की बगावत को कम ना आंकिये ।।
बुझ गए है जो जद्दोज़हद में आँधियों से ,
उन चिरागों की शहादत को कम न आंकिये ।।
गिरा देती है अक्सर बड़े-बड़े हाथियों को भी ,
अदानी-सी चींटी की ताकत को कम ना आंकिये ।।
शमा को फर्क पड़े या न पड़े कोई बात नहीं ,
परवाने की जल मरने की आदत को कम न आंकिये ।।
बड़े -बड़े ढेर भी अक्सर राख हो जाते है पलों में ,
बुझती चिंगारी की घास से अदावत को कम ना आंकिये ।।
ज़रूरी नहीं कि मंदिर जाऊं मैं खुदा के लिए ,
चौराहे पे हुई इबादत को कम ना आंकिये ।।
रुसवा करने को काफी होता है एक इशारा ही ,
"नजील" बज़्म में आँखों की शरारत को कम ना आंकिये